Last updated on December 19th, 2024 at 09:57 pm
बुद्ध – बैसाख़ पूर्णिमा को कौनसी महत्वपूर्ण घटनाएँ घटी थी ।
नमो बुद्धाय।। सर्वप्रथम मैं बौद्धाचार्य, अरविंद राजाराम जाधव (बापेरकर) अपने इस बुद्ध नीति धम्ममंच पर आप सभी का स्वागत करता हूं।
आज की इस ब्लॉग में, मैं आपको ‘बुद्ध पूर्णिमा’ यानी कि बैसाख पूर्णिमा के बारे में बताने जा रहा हूं। बौद्ध धम्म में बैसाख पूर्णिमा को बुद्ध जयंती नहीं कहते हैं। उसे बुद्ध पूर्णिमा ही कहते हैं। और बुद्ध पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध के जीवन में, कौन-कौन सी घटनाएं घटी थी; इसके बारे में जानने के लिए चलिए आज का यह ब्लॉग शुरू करते हैं।
बैसाख पूर्णिमा यानी के (वेस्साको)
तथागत के जीवन में, इस बैसाख पूर्णिमा से अधिक विशेष कोई पूर्णिमा नहीं है। इसी पूर्णिमा को भगवान बुद्ध के जीवन की दस अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थी। आज के इस ब्लॉग में, इन सारी घटनाओं के बारे में जानकारी लेंगे।
भगवान बुद्ध ‘शाक्य कुल’ से संबंधित थे। शाक्यों के राजधानी का नाम ‘कपिलवस्तु’ था। शायद यह नाम महान बौद्धिक दार्शनिक ‘कपिलमुनि’ के नाम पर रखा गया था। इस कपिलवस्तु में ‘जयसेन’ नामक शाक्य का ‘सिंहहनू’ नाम का पुत्र था। उनका गोत्र ‘आदित्य’ था। सिंहहनू की पत्नी ‘कंचायना’ थी। सिंहहनू और कंचायना को शुद्धोदन, धौतोदन, शुक्लोदन शाक्योदन और अमितोदन ऐसे पांच पुत्र थे। अमिता और प्रमिता नाम की दो कन्याएं भी थी।
कोलिय वंश की ‘माता महामाया’ जो ‘देवदहा नगरी’ में अपने माता-पिता कोलीय राजा ‘अंजन’ और ‘रानी सुलक्षणा’ के साथ रहती थी, उनका विवाह शुद्धोदन के साथ हुआ। बहुत साल बीत गए। लेकिन उन्हें कोई संतान प्राप्ति नहीं हो रही थी।
ईसा पूर्व 564 में आषाढ़ पूर्णिमा के दिन सुमेध बोधिसत्वने उनके गर्भ में प्रवेश किया।
दिए के तेल समान, माता महामाया ने, बोधिसत्व को आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर पूरे १० महीने अपने गर्भ में धारण किया।
रानी महामाया को जब यह अहसास हुआ, कि उनका प्रसव काल नजदीक आ गया है; तो उन्होंने अपने मायके यानी की ‘देवदहा’ नगरी, जो कपिलवस्तु से लगभग २० किलोमीटर पूर्व में है, वहां जाकर प्रसूत होने की राजा से मंशा जाहिर की।
देवदहा स्थान पे, राजा शुद्धोदन ने रानी महामाया के बच्चे को उसके पिता के घर में जन्म देने के अनुरोध को, तुरंत स्वीकार कर लिया। सभी आवश्यक व्यवस्थाएं भी की गईं। रानी को दासियों, सोने की पालकियों, अनेक अंगरक्षकों तथा अमात्य के साथ लवाजमे के साथ उनको पिता के घर भेजा गया।
कपिलवस्तु और देवदहा के बीच नेपाल – तराई के जंगलों में, लुंबिनी नामक एक बहुत ही सुंदर वन है। इस जगह का आज का स्थानीय नाम रुम्मिनदेई है। शाल आदि वृक्षों से सुशोभित, फूलों और फलों से लहलहाते, सर्वत्र सुगन्धित सुगन्ध के सुखद वातावरण से घिरे इस वन को देखकर रानी कुछ देर वहाँ विश्राम करने का विचार करके वहीं रुक गयी।
बगीचे में पगडंडी पर चलते हुए, रानी एक शाल के पेड़ के नीचे खड़ी हो गयी। जिज्ञासावश रानी ने पेड़ की उन शाखाओं को पकड़ने की कोशिश की जो हवा से उड़ रही थीं। हवा से उड़ी हुई शाखा आसानी से रानी के हाथ में आ गयी। अगले ही पल शाखा रानी सहित ऊपर उठ गयी। ऊपर का यह छोटा सा झटका भी १० साल का गर्भ धारण की हुई माता महामाया से सहन नहीं हुआ।
यहीं लुंबिनी के वन में, माता महामाया हाथ में एक शाखा पकड़कर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके खड़ी थी, तभी रानी को प्रसव पीड़ा शुरू हुई और इसी स्थिति में उन्होंने राजकुमार सिद्धार्थ को जन्म दिया। वह सुदिन था, मंगलवार का, शाक्य संवत 68 और बैसाख पूर्णिमा, ईसा पूर्व ५६३, विशाखा नक्षत्र। इधर बैसाख चतुर्दशी का चंद्रमा क्षितिज में प्रवेश कर रहा है। वहां शुद्ध पंचमी यानी बैसाख पूर्णिमा का सूर्य उगता हुआ अपना पूर्ण रूप दिखा रहा होता है। दुनिया में हर दिन हजारों बच्चे पैदा होते हैं, लेकिन तथागत के जन्म की यह घटना बेहद आकर्षक रूप में दुनिया के सामने आई।
राजा शुद्धोदन के घर बहुत सालों के बाद एक महान बालक ने जन्म लिया था। इस बालक के जन्म से ‘सर्वार्थ सिद्ध’ होने के कारण बालक का नाम ‘सिद्धार्थ’ रखा गया। इस दिन को विश्व के बौद्ध उपासक शाक्यमुनी, शाक्यकुलीन, सम्यक, सम्बुद्ध, तथागत, भगवान, अरहंत, सभी मनुष्यों, पशु-पक्षियों, वृक्षों, कीट-पतंगों के साथ-साथ सभी जीव-जंतुओं के हितैषी के जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं।
बुद्ध पूर्णिमा को, इस सृष्टि ने जम्बूद्वीप को बुद्ध नाम का मूल्यवान रत्न दान दिया, इसीलिए सभी बौद्ध जगत में इस पवित्र दिन को ‘धम्मदान दिवस’ के रूप में मान्यता देने की प्रथा है।
जिस दिन, लुंबिनी में राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म हुआ,
इसी शुभ दिन पर उनकी पत्नी ‘राजकुमारी यशोधरा’ का जन्म कपिलवस्तु शहर से सटे रामनगर नामक राज्य में कोलीय राजा दंडपाणि के महल में हुआ था। यानि राजकुमार सिद्धार्थ और राजकुमारी यशोधरा एक ही दिन जन्म लेने के कारण हमउम्र थे। यशोधरा इस शब्द का अर्थ है ‘महान सफलता का वाहक’।
‘आनंद’, जिन्हें पूरी दुनिया भगवान के प्रिय शिष्य के रूप में जानती है, वास्तव में वे राजकुमार सिद्धार्थ के चाचा अमितोदन, के बेटे थे। मतलब सिद्धार्थ के चचेरे भाई थे। उन्होंने अपना सारा जीवन, तथागत के साथ उनकी सेवा में बिताया। उनका जन्म भी इसी दिन हुआ।
राजकुमार सिद्धार्थ के प्रिय घोड़े का नाम ‘कंठक’ था। उन दोनों में बहुत लगाव था। दोनों प्रेम और मैत्री के रिश्ते में बंधे थे। माता यशोधरा के स्वयंवर के समय, जीतने के लिए, कंठकने ही उनका साथ दिया था। बोधिसत्व सिद्धार्थ ने जब महाभिनिष्क्रमण यानी कि गृहत्याग किया तो कंठक ही उन्हें छोड़ने गया था। वह बहुत रोया। तथागत के पैर को चाटने लगा। वह उनको छोड़ नहीं रहा था।
‘कंठक’ का जन्म भी इसी समय हुआ था।
बोधिसत्व सिद्धार्थने, सुजाता से खीरदान लेने के बाद, बुद्धत्व का संकल्प किया। और संबोधी प्राप्त करने हेतु एक पीपल वृक्ष यानी की बोधीवृक्ष का चुनाव किया। इस बोधिवृक्ष का जन्म भी दिन इसी दिन हुआ था। इसके नीचे बैठकर तथागत में विशाल मारसेना को पराजित कर दिया था और बुद्धत्व प्राप्त कर लिया।
राजकुमार सिद्धार्थ के सारथी का नाम छन्न था। वह सिद्धार्थ का प्रिय सेवक था। सिद्धार्थ उन्हें अपना दोस्त मानते थे। छन्न भी सिद्धार्थ से बहुत प्रेम करते थे। राजकुमारी यशोधरा के स्वयंवर में, जीतने के लिए छन्न ने सिद्धार्थ को प्रेरित करके क्षत्रिय धर्म का पालन करने को कहा। और सिद्धार्थ ने स्वयंवर को जीत लिया था। सिद्धार्थ के इस सारथी छन्न का जन्म भी इसी दिन हुआ था।
इस शुभ अवसर पर, ‘कालुदायी’ नामक अमात्य, जो राजा शुद्धोदन के अमात्य और बाद में गौतम के मित्र के रूप में जाने गए, उनका जन्म भी इसी दिन हुआ था।
‘अजानिया गजराजा’ का जन्म भी इसी दिन हुआ था।
और इसी दिन सात स्वर्ण कलश भी उत्पन्न हुए।
कपिलवस्तु नगर में रहने वाले शाक्यों के पड़ोस में ‘दण्डपाणि’ नाम का राजा राज्य करता था। ‘दण्डपाणि’ का अर्थ है, जिसके हाथ में हमेशा सोने का दंड है। राजा दण्डपाणि की गोपा यानी की, यशोधरा नाम की एक सुन्दर पुत्री थी। वह अपनी सुंदरता और चरित्र के लिए प्रसिद्ध थी। जब उन्होंने सोलह वर्ष में प्रवेश किया, तो उसके लिए अनुपम वर ढूंढने हेतु राजपरिवार चिंतित था। प्रथा के अनुसार राजा दंडपाणि ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर की घोषणा की। सभी देशों के राजकुमारों के साथ-साथ, सिद्धार्थ को भी इस स्वयंवर में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था। यशोधरा और उनका जन्म एक ही दिन हुआ था, इस वजह से सिद्धार्थ ने भी सोलह वर्ष में प्रवेश किया था। प्रारंभ में, सिद्धार्थ इस स्वयंवर में जाने के लिए अनिच्छुक थे। उनकी माता या मौसी महाप्रजापति गौतमीने सिद्धार्थ से कहा, “युवराज! यह अवसर तुम्हें छोड़ना नहीं चाहिए। मुझे तुम्हारे क्षत्रबल पर पूरा भरोसा है। मुझे यकीन है कि तुम यह स्वयंवर अवश्य जीतोगे। और फूलों समान सुंदर, राजकुमारी यशोधरा को ही मैं, बहू के रूप में चाहती हूं, मुझे निराश मत करो।”
माता-पिता के समझाने के बाद, सिद्धार्थ गौतम स्वयंवर के लिए तैयार हो गए। स्वयंवर में आए सारे युवकों में सिद्धार्थ का रूप तेजस्वी होने के कारण, राजकुमारी यशोधरा ने सिद्धार्थ का ही चुनाव किया। लेकिन यशोधरा के इस फैसले से, राजा दण्डपाणि खुश नहीं थे। क्योंकि उनको लगता था, सिद्धार्थ हमेशा साधु सन्यासीओं की संगत में रहता है। वह अकेला रहना भी पसंद करता है। इसलिए क्या वह अपना गृहस्थी जीवन सफलपूर्वक बिता पाएगा? यह सारे सवाल, उनके मन में उत्पन्न हो रहे थे। यशोधरा ने अपने माता-पिता से कहा, “साधु संतों के बीच रहना, क्या कोई अपराध है?” और मैं शादी करुंगी तो सिर्फ सिद्धार्थ के साथ।” स्वयंवर में आए हुए अन्य राजकुमारों को यह उनका अपमान लगा। उन्होंने दण्डपाणि को धनुर्विद्या आदि प्रतियोगिता रखने को कहा। लेकिन सिद्धार्थ इस प्रतियोगिता के लिए तैयार नहीं थे। किंतु उनके सारथी और प्रिय सेवक छन्न ने उनको समझाया के प्रतियोगिता में हिस्सा ना लेने पर, वहां सबके सामने सिद्धार्थ के कुल का, उनके क्षत्रियत्व का और यशोधरा की सम्मान का भी अपमान होगा। इसलिए सिद्धार्थ ने न केवल स्वयंवर प्रतियोगिता में भाग लिया, बल्कि वहां स्वयंवर के लिए आया हुआ कोई भी राजकुमार उनकी बराबरी तक नहीं कर पाया। राजा दण्डपाणि ने स्वयंवर में जंगली घोड़े की पीठ पर सवार होने की शर्त रखी थी। बाकी किसी भी राजकुमार की उस जिद्दी, जंगली और जंगली घोड़े को छूने की हिम्मत नहीं हुई। सिद्धार्थ की ‘आश्वलक्ष्यविद्या’ में महारत होने के कारण, सिद्धार्थ ने न केवल उसकी पीठ पर सवारी की बल्कि उसे शांत भी किया। इसके साथ ही ‘तीरंदाजी’, तलवारबाजी, ‘काव्यशास्त्र’, ‘इतिहास’, ‘पुराण’, ‘वेद’, ‘लिपिज्ञान’, ‘व्याकरण ‘अंकशास्त्र’, ‘ज्योतिष’,’ वैशेषि’, ‘सांख्य’, ‘स्त्रिलक्षण’ आदि में भी उनके बराबरी कोई नहीं कर सकता था। गौतम ने सभी विद्वानों के सामने कला और विज्ञान में अपनी निपुणता साबित की।
जिस दिन सिद्धार्थ गौतम और राजकुमारी यशोधरा का शुभ विवाह हुआ वह संयोगवश वैशाख पूर्णिमा ही थी। और वर्ष था ईसा पूर्व ५४७
स्वयंवर प्रतियोगिता में भाग लेने वाले सभी आमंत्रित राजा-महाराजाओं के साथ-साथ प्रजा ने राजकुमार सिद्धार्थ की जय-जयकार की। इसके तुरंत बाद राजकुमारी यशोधरा ने उस स्वयंवर मंडप में ही उन सभी की उपस्थिति में सिद्धार्थ के गले में विजयमाला डाल दी।
माता यशोधरा को इतिहास में, गौतम पत्नी, राहुल माता, बिम्बादेवी, बिम्बासुन्दरी और उत्पलवर्णा के नाम से जाना जाता है। उन्होंने जब संघदीक्षा ली तो उनका नाम था भद्रा कंचायना।
ऐसा कहा जाता है, सिद्धार्थ गौतम का जन्म लुम्बिनी में हुआ था और भगवान बुद्ध का जन्म बुद्धगया में हुआ था। इस नौवीं घटना पूरी दुनिया महत्वपूर्ण मानती है। यह नौवीं घटना ऐसी है, जिस पर पूरी मानव जाति को अभिमान होना चाहिए। न केवल मानव जाति को, बल्कि वन्यजीवों, जंगली जानवरों, सूक्ष्मजीवों, पौधों, चेतन और अचेतन चीजों द्वारा भी सभी को कल्याण का मार्ग मिला।
बोधिसत्व सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण यानी कि गृहत्याग की गलत कहानी स्कूलों में बताई जाती है। मेरे आषाढ़ पूर्णिमा के ब्लॉग में इसका स्पष्टीकरण करुंगा। गृहत्याग के बाद छह साल तक सच्चे ज्ञान के प्राप्ति हेतु सिद्धार्थ ने कठिन आत्मक्लेश लिया। कठोर तपस्या की। पेट को हांथ लगाने पर पीठ लगती थी। छह साल में उनका शरीर इतना क्षीण हो गया था की उनसे एक जगह से हिला भी नहीं जा रहा था। उनको पता चला के यह ज्ञान और दुख के मुक्ति का मार्ग नहीं है। यह तो सुख की आशा में दुख के गड्ढे में गिरने समान है। उस तकलीफ भरी अवस्था में वह उरुवेला में एक बरगत के पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगे।
उस उरुवेला में सेनानी नामक गृहस्थ की सुजाता नाम की एक कन्या थी। उसने उसी बरगत के पेड़ से पुत्रप्राप्ती की मन्नत मांगी थी। मन्नत पूरी होने तक उस पेड़ की पूजा करने का उसने प्रण लिया था। उस पेड़ की पूजा करने के लिए जब उसकी दासी पन्ना आई, तो सिद्धार्थ को देखकर उसको किसी वृक्ष देवता का आभास हुआ। उसने यह बात सुजाता को जाकर बताई। सुजाता खुद एक सोने के पात्र में सिद्धार्थ के लिए खीर लेके आई। वह खीर से भरा सोने का पात्र लेकर सिद्धार्थ सुपतिठ्ठ नदी किनारे गए। वहां स्नान करके उन्होंने उसे खीर के उन्चास निवाले ग्रहण कीए। उसी रात उन्होंने पांच स्वप्न देखें जिससे उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें संबोधि प्राप्त होगी। और अपने भविष्य को महसूस करने के लिए उन्होंने सुजाता का दिया हुआ सोने का पात्र, को नैरंजना नदी में फेंक कर संकल्प किया कि, अगर यह सोने का पात्र नदी के प्रवाह के विरुद्ध दिशा में बहकर जाएगा तो मैं समझूंगा कि मुझे बुद्धत्व प्राप्ति होगी अन्यथा नहीं। और क्या आश्चर्य! वह पात्र नदी के प्रवाह के विरुद्ध दिशा में जाने लगा। सारे व्रत तोड़कर बुद्धत्व प्राप्ति का संकल्प किया।
दृढ़ निश्चय करके उन्होंने उरुवेला छोड़ दिया। और शाम के समय वे गया नगरी पहुँच गए। वहाँ उन्होंने एक सुन्दर पिपल का वृक्ष देखा। वह उस पिंपल वृक्ष जिसको बोधिवृक्ष कहा जाता है उसके नीचे अपना मुख पूर्व दिशा की ओर करके बैठ गए। उस समय सारे ऋषिमुनि चित्त के मल को नष्ट करने के लिए पूर्व दिशा का चयन करते थे। ध्यान करने के लिए बैठने से पहले सिद्धार्थने इतना भोजन इकट्ठा किया कि वह चालीस दिन तक चल सकता था। वहां पर काल नाम के राजा अपनी पत्नी सुवर्णाप्रभा के साथ उनसे मिलने आए। उन्होंने सिद्धार्थ से आशीर्वाद लिया।
उसके बाद सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे पद्मासन में बैठे और उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि, भले ही उनके शरीर का सारा रक्त, मांस और हड्डियां सूख जाए, लेकिन जब तक उन्हें ‘बोधि’ प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक वह उस स्थान को नहीं छोड़ेंगे।
वे ध्यान के लिए बैठे। ज्ञान प्राप्ति से पहले उन्हें ‘मार’ पर विजय प्राप्त करनी थी। सिद्धार्थ को पता था कि यह लड़ाई आसान नहीं होगी। जब सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे, नैरंजना नदी के किनारे, निर्वाण प्राप्त करने के लिए बड़े उत्साह के साथ ध्यान कर रहे थे, तो मार वहां आया और उसने सिद्धार्थ को मना करने की पूरी कोशिश की। ‘मार्’ का अर्थ है मारने वाला, इसे मन की दुष्ट या अकुशल प्रवृत्तियों का समुच्चय भी कहा जाता है। और वह हमार अकेला नहीं आया था, अपनी पूरी सेना के साथ आया था।
- मार की पहली सेना हैं, कामभोग।
- मार की दूसरी सेना है, बोरियत।
- तीसरी सेना है, भूख और प्यास।
- चौथी सेना है, विषय वासना।
- पाँचवीं सेना है, आलस्य।
- छठी सेना है, भय यानी कि डर।
- सातवीं सेना है, अहंकार।
- आठवीं सेना है, अती विचार, जो ध्यान से मन को भटकाते है।
- नौवीं सेना है, लाभ या आराधना।
- दसवीं सेना है, झूठे तरीकों से प्राप्त की गई प्रसिद्धि और स्वयं की प्रशंसा या निंदा करना।
कोई कायर इसे जीत नहीं सकता. परन्तु जो वीर पुरुष उस पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह अंतिम सुख भोगता है।
आखिर, बोधिसत्व सिद्धार्थ ने इस मारसेना को हरा ही दिया। ‘मार पर विजय’ का अर्थ है ‘आत्म-विजय’। यह जीत किसी बाहरी दुश्मन पर जीत से कहीं बड़ी है। जो दूसरे को जितता है, वह क्या जितता है? उल्टा हारनेवालों को खो देता है। और जिसने खुदको जीता, उसने सारा संसार जीता है।
जैसे ही वह दृढ़ मुद्रा में बैठा, बुरी चेतना और बुरे विचार एक के बाद एक उसके मन पर आक्रमण करने लगे। इसे ही पौराणिक भाषा में ‘मार्पुत्र का आक्रमण’ कहा जाता है। सिद्धार्थ को यह डर सताने लगा कि यदि उन्होंने उन बुरे विचारों पर नियंत्रण नहीं रखा तो उनकी साधना विफल हो सकती है। वह जानते थे कि ‘मार’ युद्ध में अनेक ऋषियों की पराजय हुई है। फिर उन्होंने अपना पूरा साहस दांव पर लगा दिया और दृढ़ निश्चय किया, “मेरे पास विश्वास, बुद्धि, विज्ञान, दृढ़ संकल्प और उपलब्धि है, इसलिए मैं ‘मार’ के हमले से नहीं डरूंगा।”
आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सिद्धार्थ को चार सप्ताह तक लगातार ध्यान करना पड़ा। बुद्धत्व प्राप्ति के अंतिम चरण तक पहुंचने के लिए उन्हें चार चरणों से गुजरना पड़ा।
- १. पहले चरण में उन्हें तर्कपूर्ण और वैचारिक संयोग की प्राप्ती हुई।
- २. दूसरे चरण में एकाग्रता आई।
- ३. तीसरे चरण में संतुलित जीवन और सचेतनता यानी की जागरूकता प्राप्त की।
- ४. चौथा और अंतिम चरण संतुलन और पवित्रता का मिलन और समभाव और जागरूकता का मिलन है।
इस प्रकार लगातार चार सप्ताह तक ध्यान करने से अज्ञान नष्ट हो गया और प्रकाश प्रकट हो गया।
चौथे सप्ताह की अंतिम रात को उन्हें महान सम्यक संबोधि की प्राप्ति हुई। सत्य ज्ञान के प्रकाश को उन्होंने प्राप्त किया। इस सृष्टि में रहने वाले सारे सजीवों को दुख से मुक्त करने का मार्ग उन्हें मिल गया। वासनाओं को समूल नष्ट करने का उपाय खोज लिया गया। अगली सुबह उसका मन खिले हुए कमल के समान विकसित हो गया। सम्यक संबोधि प्राप्त करने के बाद, उन्हें चार आर्य सत्य और प्रतीत्य समुत्पाद सिद्धांत का ज्ञान भी प्राप्त हुआ। सृष्टि के सारे नियम और सिद्धांतों का उन्हें पता चल गया। दुनिया को अज्ञानता के अंधकार से सत्यज्ञान के सुर्यप्रकाश में लाने के लिए ही सिद्धार्थ सम्यक सम्बुद्ध हुए। उस वक्त उनकी उम्र 35 साल थी. उस दिन बुधवार था, बैसाख की पूर्णिमा और वर्ष था ईसा पूर्व ५२८।
पांचवी घटना: महापरिनिर्वाण
महापरिनिर्वाण से पहले भगवान के अंतिम शब्द इस प्रकार थे-
अनिच्च वट संखारा, उपादवाय धम्मिनो उपजित्वा निरुज्जन्ति तेसेन वुपसमो सुखो
अर्थ: “भिक्खु! सभी संस्कार नाशवान हैं। आपको अप्राप्य रहकर अपनी मुक्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।”
80 वर्ष की आयु में, उत्तररात्रि यानी 483 ईसा पूर्व तीसरी वैशाख पूर्णिमा की रात, मल्ल देश के कुशीनगर में, भगवंत ने शालवन में एक जोडसल वृक्ष के नीचे महापरिनिर्वाणपद प्राप्त किया। उस दिन बैसाख की पूर्णिमा भी है. वह शुक्रवार था.
जब भगवान वैशाली में भिक्षु संघ के साथ रह रहे थे, तो उन्होंने माघ पूर्णिमा को भन्ते आनंद को पास बुलाया और कहा, “आनंद! आज से तीन महीने बाद बैसाख पूर्णिमा के दिन तथागत को महानिर्वाण प्राप्त होगा। वह स्थान कुशीनगर होगा।” इसलिए माघ पूर्णिमा को महानिर्वाण घोषणा दिन कहते है।
भगवान ने 45 वर्षों तक लगातार अपने पवित्र धम्म का प्रचार किया। बौद्ध धम्म के उपयोगी सिद्धांत, इसकी अंतर्निहित उत्कृष्टता, सत्य की इसकी स्वयंसिद्ध नींव, इसकी उत्कृष्ट नैतिक शिक्षा और समग्र रूप से समाज की जरूरतों को पूरा करने की इसकी क्षमता, इन सारी बातों ने बौद्ध धम्म को बहुत तेजी से फैला दिया।
तथागत ने स्वयं अंतिम क्षण तक चारिका का प्रदर्शन किया। भगवान स्वयं धम्मदूत बन कर सर्वत्र विचरण करते थे। उनके श्रावस्ती और राजगृह धम्म प्रचार के प्रमुख केंद्र थे। उन्होंने लगभग 75 बार सैंतीस दौरे किये। और वह भी पैदल।
लुंबिनी से राजगृह की दूरी चार सौ किलोमीटर है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भगवान कई स्थानों पर भ्रमण के दौरान कितना पैदल चले। अन्य सभी भिक्खुओं की तरह, तथागत भी अपने साथ केवल तीन चीवर रखते हैं। दिन में केवल एक बार भोजन करते। धम्म देसना करते। रात हो जाती तो वह मार्ग के किनारे किसी पेड़ के नीचे रुक जाते। बाद में उनके बहुत सारे उपासकों ने विहार बनवाये। वे वहां रहने लगे। नये अनुयायियों को उपदेश, भिक्षुओं को धम्म बताना। जिन लोगों को धम्म के बारे में संदेह था, उन्हें निरस्त कर दिया गया। विरोधियों की दलीलों का जवाब दे रहे हैं। कुछ विरोधियों ने उनपर और उनके चरित्र पर हमला करने की भी कोशिश की, पर बुद्ध की प्रज्ञा, शील और करुणा के आगे सारी सृष्टि नतमस्तक हो गई। वह उन लोगों को मार्गदर्शन करते है जिन्हें उस पर विश्वास है। भिक्खु वह प्रकाश है जो बुद्ध के आदर्श समाज का मार्ग दिखाता है। भिक्खु के पदचिन्हों पर चलना ही उपासक का लक्ष्य है। भिक्खू को स्वयं शीलवान यानी कि चरित्रवान, और ज्ञानी होना चाहिए। बुद्धत्व प्राप्ति के लिये उसे निरन्तर व्यक्तिगत साधना का प्रयत्न करना चाहिये। उन्हें लोगों का मार्गदर्शन करके उनकी सेवा करनी चाहिए और उपासक को उनकी शिक्षाओं का पालन करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। यह बुद्ध के विचार थे।
तथागत के उपरोक्त शब्दों को सुनकर, आनंद ने अनुरोध किया, “भंते! किसी को कुशीनगर जैसे छोटे शहर में निर्वाण प्राप्त करने के बजाय, चंपा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशांबी, वाराणसी जैसे बड़े शहरों में निर्वाण प्राप्त करना चाहिए। वहां असंख्य अनुयायी हैं , धनवान और प्रसिद्ध भक्त आपकी पूजा करेंगे।
इस पर भगवान ने उत्तर दिया, “आनंद! कुशीनगर को छोटा मत समझो। यह एक समय राजा महासुदर्शन की राजधानी थी। उसका नाम केशवरती था। यह शहर प्राचीन काल में धन-धान्य से समृद्ध और सुंदर वृक्षों से सुशोभित था। मैंने जानबूझकर इस स्थान को चुना है।” इसके पीछे तीन कारण हैं, एक तो मेरे द्वारा वहां मौन रहकर महापरिनिर्वाणसुत्त का उपदेश दिया जा सकता है, दूसरा-अंततः मुझे ‘सुभद्रा’ प्रव्रज्जा दी जा सकती है और तीसरा, मेरे परिनिर्वाण के बाद मेरे अस्थियों के वितरण को लेकर अनुयायियों में विवाद या खून-खराबा नहीं होगा।
भगवान ने यह जानकर कि अपना अंतिम समय निकट है, अपना निवास स्थान वैशाली से स्थानांतरित कर लिया। भाऊग्राम, जम्बूग्राम, हस्तिग्राम, आम्रग्राम, भोगनगर होते हुए ‘पावा’ आये। पावा के अंत में उसने चुन्द के घर भोजन किया। इस भोजन के कारण तथागत को अतिसार हो गया। जब वह पीड़ा असहनीय हो गई तो उन्होंने उस ‘स्मृति सम्प्रजन्य’ की सहायता से यह सब सहन किया। फिर उन्होंने आनंद को उत्तर दिशा की ओर सिर करके कुशीनगर में दो साल के पेड़ों के बीच बैठने के लिए कहा।
फिर भी, इस आसन से भगवान ने सभी को महापरिनिर्वाणसुत्त का उपदेश दिया। प्रव्रज्जा को ‘सुभद्रा’ नामक उपासक को दिया गया था जो निर्वाण से पहले तथागत के अंतिम शिष्य के रूप में जाने जाते हैं। इसके बाद ही जगवंदनि, शाक्यमुनि, शांतिसागर, बस्तासा लोकनायक, दशपारमिताधाकर, आदित्यबंधु, सम्यकसंबुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।
इस दिन यह सारी घटनाएं घटी। इसी वजह से इस दिन को हमें बुद्ध पूर्णिमा कहना चाहिए। बुद्ध जयंती नहीं कहना चाहिए क्योंकि इस दिन को सिर्फ सिद्धार्थ गौतम का जन्म ही नहीं, उनका विवाह हुआ था, बुद्ध का भी जन्म हुआ था और महापरिनिर्वाण भी हुआ था।
इस दिन बुद्ध विहार में, भगवान बुद्ध के प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए, समारोह मनाना चाहिए। उनके विचारों का पालन करना चाहिए। अष्टशिल का पालन करना चाहिए। विहार में जाए और धम्मदेसना सुने। यथाशक्ति भिक्खुओं को दान दे। नमो बुद्धाय।।